धर्मो रक्षति रक्षितः कहाँ से लिया गया है

धर्मो रक्षति रक्षितः कहाँ से लिया गया है एवं इसका अर्थ क्या है?

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By Pooja Sharma

हिन्दू धर्म में कई श्लोक मौजूद है उन्हीं में से एक है धर्मो रक्षति रक्षितः। हिन्दू धर्म के अनुयायियों ओर उनकी संस्कृति पर विधर्मी प्राचीन काल से ही हमला करते आ रहे हैं फिर भी यह धर्म फल फूल रहा है और विदेशों में भी हिन्दू धर्म को लोग अपना रहे हैं वो भी बिना किसी जोर जबरदस्ती और लालच के। हिन्दू धर्म विश्व का सबसे पुराना धर्म है। इस लेख में हम इस श्लोक से जुड़ी जानकारी साझा करेंगे और आपको यह भी बताएंगे कि धर्मो रक्षति रक्षितः कहां से लिया गया है एवं इस श्लोक का अर्थ क्या होता है?

धर्मो रक्षति रक्षितः कहाँ से लिया गया है?

पंडित जीवन शर्मा के अनुसार धर्मो रक्षति रक्षितः श्लोक मनुस्मृति तथा महाभारत से लिया गया है । इसका मतलब होता है कि “धर्म की रक्षा करने पर रक्षा करने वाले की धर्म रक्षा करता है।” मनुस्मृति में श्लोक 8.15 में वर्णित लोकप्रिय संस्कृत वाक्यांश धर्मो रक्षति रक्षितः। आपको धर्म की रक्षा करने तथा सदैव धर्म के साथ खड़े रहने के संदर्भ में कहा गया श्लोक है जो महाभारत में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते समय कहा था। जिसका मतलब “तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा” होता है।

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पूरा श्लोक

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।

“जो धर्म का विनाश करता है, धर्म उसका का ही विनाश कर देता है, और जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है । इसलिए धर्म का कभी भी विनाश नहीं करना चाहिए, ताकि धर्म भी कभी हमारा विनाश न कर सके।”

कभी भी धर्म के विरुद्ध नहीं रहना वरना विनाश सम्भव है, इसीलिए हमेशा धर्म के हित में ही रहा चाहिए और धर्म की रक्षा करने का समय आ जाएँ तो धर्म की रक्षा करना चाहिए क्योकि धर्म हमेशा उस व्यक्ति की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है।

जिस समय यह वाक्य कहें गये थे उस समय संसार में कोई और धर्म नहीं था यानिकी केवल सनातन धर्म था जो अनंत तक रहेगा। परन्तु यहाँ सनातन धर्म या हिन्दू धर्म की रक्षा की बात नहीं कही जा रही है, बल्कि यहाँ धर्म से अर्थ है कर्तव्य और सत्य।

कर्तव्य और सत्य ही सबसे बड़े धर्म माने गये हैं, तथा हर परिस्थिति और वर्ग के लोगों के कर्तव्य अलग-अलग हो सकते हैं, जैसे एक पंडित के अलग कर्तव्य होते हैं, एक वैश्य के अलग कर्तव्य होते हैं। जो अपने कर्तव्यो का पालन ही करना है वह जल्द ही बर्बाद हो जाता है, यदि जीवन में सफल होना है और ईश्वर को प्रसन्न करना है तो अपज कर्तव्यो का पालन करना न भूले।

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